भारत रत्न डॉक्टर राजेंद्र ‘बाबू’: सादगी और सदाचार की प्रतिमूर्ति

Dr. Rajendra Prasad Birth Anniversary: आज भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी की जयंती है. इस ख़ास मौके पर जानते हैं उनसे जुडी कुछ ख़ास बातें।

12 वर्षों तक जब प्रथम राष्ट्रपति के तौर पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में रहे तो यह आलीशान इमारत सादगी की मूरत बन गयी थी। आंगन में तुलसी, द्वार पर रंगोली, भवन में आरती और दीपमाला से राष्ट्रपति भवन का महौल किसी धर्मस्थल जैसा पवित्र लगता था। इसके अलावा वह सादा जीवन-सादा भोजन के मंत्र में विश्वास रखते थे। प्रथम राष्ट्रपति की ही तरह देश की प्रथम महिला नागरिक की जिम्मेदारी निभाने वाली राजवंशी देवी ने भी कभी अपने पद और मान पर रत्ती भर का अहंकार नहीं किया और हमेशा प्रेम और सादगी भरा जीवन ही जिया।

देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की विद्धता की चर्चा देश से लेकर विदेश तक होती है। डॉ राजेंद्र प्रसाद को प्यार से लोग बाबू राजेंद्र प्रसाद भी कहकर बुलाते थे। उनका जन्म 3 दिसम्बर 1884 को सीवान के जीरादेई गांव हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय संस्कृत और फारसी के विद्वान थे और उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पांच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा ग्रहण करना शुरू कर दिया जिसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र बाबू का विवाह उस समय की परम्परानुसार बचपन में ही लगभग 13 वर्ष की उम्र में राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढाई पटना की टीके घोष अकादमी से जारी रखी।

18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी जहाँ उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया, वहां उनकी प्रतिभा ने बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ एलएलएम की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की।

डॉ राजेन्द्र प्रसाद महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। साथ ही उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। राजेन्द्र बाबू बापू के  साहस, समर्पण और निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए और 1928 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के सीनेटर का पद त्याग दिया। गाँधी जी के विदेशी संस्थानों के बहिष्कार करने की अपील करने पर राजेंद्र बाबू ने अपने अति-मेधावी पुत्र मृतुन्जय प्रसाद को उन्हें कोलकाता विश्वविद्यालय से हटाकर बिहार विद्यापीठ में दाखिला दिलवाया।

12 वर्षों तक राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार सँभालने के बाद उन्होंने 1962 में अवकाश की घोषणा की और इस अवकाश के बाद उन्हें भारत सरकार की ओर से सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। राजेन्द्र बाबू अपनी वेशभूषा से सामान्य किसान जैसे लगते थे, उन्हें  देखकर पता ही नहीं लगता था कि वे इतने प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हैं। अपने अंतिम दिन उन्होंने पटना के सदाकत आश्रम में बिठाये और 28 फरवरी 1963 को वे हम सबको छोड़कर चले गए।

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