चिराग पासवान के सामने कितना चुनौतीपूर्ण होगा पिता की विरासत को संभालना ?

नई दिल्ली (रिपोर्ट- प्रदीप कुमार): दिग्गज दलित नेता रहे रामविलास पासवान के पंचतत्व मे विलीन होने के साथ ही  राजनीतिक हल्कों में यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या एलजेपी अध्यक्ष चिराग पासवान संभावित सहानुभूति के सहारे पिता की विरासत मजबूती से संभाल पाएंगे? रामविलास पासवान के निधन के बाद जेडीयू और बीजेपी के लिए भी अब एलजेपी पर सीधा हमला बोलना आसान नहीं होगा।
बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता। दलितों के उत्थान में उनकी अहम भूमिका रही। देश के छह प्रधानमंत्रियों के साथ उन्होंने काम किया। यह भी एक संयोग ही है कि चुनाव से उपजे रामविलास पासवान का निधन भी उस समय हुआ, जब बिहार में चुनाव हो रहे हैं।

चिराग के लिए कितना चुनौती भरा होगा पार्टा को संभालना !

दरअसल राम विलास पासवान दलितों के सर्वमान्य और कद्दावर नेता रहे हैं। उनके निधन से एलजेपी के प्रति दलितों में सहानुभूति स्वाभाविक है। हालांकि इसके बाद उनके सांसद पुत्र चिराग के लिए चुनौतियों का दौर शुरू होने वाला है। उनका राजनीतिक भविष्य बहुत हद तक बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे पर निर्भर करेगा।
चुनाव में पार्टी का बेहतर प्रदर्शन न केवल चिराग के सियासी कद को नई ऊंचाइयां देगा, बल्कि पिता पासवान की विरासत पर उनके नाम की मुहर भी लग जाएगी। इसके विपरीत अगर पार्टी का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा तो चिराग के लिए मुसीबतों का दौर शुरू होगा। केंद्र में पिता पासवान की जगह मंत्री बनने का चिराग का रास्ता भी बहुत कुछ चुनाव में प्रदर्शन से ही तय होगा।

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बिहार चुनाव में बीजेपी के साथ,जेडीयू के खिलाफ की रणनीति खुद चिराग पासवान की रही। जैसे साल 2014 के लोकसभा चुनाव में चिराग के ही दबाव में रामविलास पासवान एनडीए में शामिल हुए। हालांकि तब पार्टी की कमान रामविलास पासवान के पास थी और पासवान के रहते पार्टी की विरासत पर सवाल उठाने की स्थिति नहीं आनी थी। अब पासवान के निधन के बाद परिस्थिति बदली हुई है।
चर्चाएं ये भी है कि रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस से चिराग से कई मुद्दों पर मतभेद हैं। चिराग को पार्टी की कमान देने से पशुपति खुश नहीं थे। जाहिर तौर पर अगर चुनाव के नतीजे मनमाफिक नहीं आए तो लोक जनशक्ति पार्टी के भीतर ही बगावत के सुर तेज होंगे।

जेडीयू पर भारी पड़ सकती है सहानुभूति की लहर !

इधर चुनाव से ठीक पहले रामविलास पासवान के निधन से जेडीयू की मुसीबत बढ़ गई है। सीएम नीतीश कुमार ने बेहद चतुराई से महादलित कार्ड खेल कर राज्य में दलितों के बीच एलजेपी का आधार कम किया था। हम के मुखिया जीतनराम मांझी को अंतिम समय में साधने की मुख्य वजह एलजेपी को दलितों में आधार नहीं बनाने देने की थी।
अब रामविलास पासवान के निधन से उपजी सहानुभूति दलित बिरादरी के सभी कुनबे को एलजेपी के पक्ष में एक कर सकती है। जेडीयू की दूसरी परेशानी बीजेपी की ओर से एलजेपी पर सीधा हमला बोलने से बचने की भी दिख रही है।
बिहार गठबंधन की घोषणा से पहले बीजेपी ने नीतीश को पासवान की अस्वस्थता का हवाला देते हुए एलजेपी को एनडीए से बाहर करने की मांग ठुकरा दी थी। अब जबकि रामविलास पासवान का निधन हो चुका है। ऐसे में बीजेपी और जेडीयू दोनों एलजेपी के खिलाफ तीखा हमला बोलने की स्थिति में नहीं हैं। विजेपी को एलजेपी पर हमला नहीं करने का बड़ा बहाना मिल गया है।

दलित वोटों का हो सकता है ध्रुवीकरण !

एलजेपी ने अपने पहले चरण के लिए घोषित 42 उम्मीदवारों की सूची में बीजेपी के छह बागियों को टिकट दिया है। रामविलास पासवान के निधन के बाद टिकट पाने में नाकाम बीजेपी नेताओं का एलजेपी की शरण में जाने का सिलसिला और तेज हो सकता है। क्योंकि आम धारणा बन रही है कि अब एलजेपी के पक्ष में दलित वोटों का ध्रुवीकरण हो सकता है।

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दूसरे मोर्चे की तरफ आकर्षित हो रहे बागी नेताओं की भी बाकी चरणों में अब विचारधारा और सहानुभूति लहर को देखते हुए एलजेपी पहली पसंद हो सकती हैं। ऐसे में एलजेपी को बैठे-बिठाए मजबूत दावेदार मिल जाएंगे।
कुल मिलाकर बिहार का विधानसभा चुनाव अब एलजेपी के राजनीतिक भविष्य और पासवान की राजनीतिक विरासत की मजबूती को भी साबित करने वाला होगा।

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